Explanation:
*आज निरालंब उपनिषद शृंखला का चौथा दिन है* और हम आपके लिए इसकी चौथी कड़ी भी लाए हैं। लेकिन उससे पहले आपको इसी उपनिषद के सत्रों से जुड़ी एक कहानी भी बताना चाहेंगे।
इसी उपनिषद पर चर्चा हो रही थी, तभी एक साथी ने आचार्य जी से पूछा, *“आचार्य जी, दुनिया में सभी लोगों का अध्यात्म की ओर रुझान क्यों नहीं होता?”*
इस प्रश्न पर आचार्य जी थोड़ा मुस्कुराए और बोले,
“देखो छोटे-मोटे सुख तो दुनिया में मिलते ही हैं, तभी तो दुनियादारी कायम रहती है। दुनिया से अगर तुम छोटी चीज़ माँगोगे तो दुनिया उसकी आपूर्ति कर देगी। दुनिया कोई बुरी जगह थोड़े ही है; कितने तरीके के सुख हैं दुनिया में, मिलते नहीं देखा लोगों को सुख? वो तो मिलते ही हैं दुनिया में। तो जो छोटी चीज़ माँग रहे हैं, दुनिया उनके लिए पर्याप्त है।
*ऋषि होने का मतलब है कि "जो कुछ दुनिया दे सकती है भाई! मुझे उससे कुछ अधिक चाहिए; अपन को ज़्यादा माँगता।"*
आत्मा सिर्फ उनके लिए है—ये बात हम बहुत बार दोहरा चुके लेकिन ज़रूरी है—आत्मा सिर्फ उनके लिए है जिनको कुछ बड़ा चाहिए; और जिन्हें कुछ बहुत बड़ा चाहिए वो छोटी चीज़ों पर ध्यान नहीं देते, वो छोटी चीज़ों पर हँसते हैं।
*अध्यात्म ऐसा है जैसे भीतर आग लगी हुई हो।*
एक प्रज्वलित चेतना है अध्यात्म, जो इतनी ज़ोर से जल रही है क्योंकि उसे प्रकाश चाहिए; प्रकाश उसे बाहर से कहीं मिल नहीं रहा तो वो कह रही है, "खुद को ही जलाऊँगी रोशनी के लिए।" रोशनी उसे पूरी मिल जाती है, लेकिन खुद को जला के, खुद को मिटा के।"
उनके इस उत्तर ने उन सज्जन की जिज्ञासा का समाधान तो किया ही, साथ ही सभी सुनने वालों के भीतर जिम्मेदारी का भाव भी और बढ़ा दिया। यदि हम सब अब अध्यात्म की ओर आगे आए हैं, जीवन में कुछ बड़ा पाने निकले हैं तो अब यात्रा पूरी करने का साहस भी हमें ही दिखाना होगा।
और इसी यात्रा में उपनिषदों के सूत्र सहायक होते हैं।