Explanation:
1893 में अमेरिका के शिकागो नगर में जो विश्वधर्म महासभा हुई थी। 1893 ई. की "विश्व अमेरिकन प्रदर्शनी" का मुख्य उद्देश्य मानव की भौतिक प्रगति को एकत्रित करना था। कल्पना करने योग्य प्रत्येक वस्तु वहाँ प्रदर्शित थी - न केवल पाश्चात्य सभ्यता की उपलब्धियों को, वरन् विश्व की अधिक पिछड़ी संस्कृतियों को भी आदमकद नमूनों आदि के द्वारा बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया गया था। यह प्रदर्शनी हालाँकि तब तक पूर्णता प्राप्त नहीं होती जब तक उसे विश्व-चिन्तन का प्रतिनिधत्व प्राप्त नहीं होता।
हॉग्टन (Walter B. Houghton) द्वारा संपादित ‘नीली का विश्व-धर्म-महासभा का इतिहास’ नामक पुस्तक हमें दर्शाती है कि ‘‘जिनकी धरती के कोने-कोने से आए प्रतिनिधियों का समावेश होगा ऐसी अनेक व्यापक सभाओं के आयोजन द्वारा मानवता के कल्याणार्थ महानतम तथ्य उजागर करने की वह कल्पना सर्वप्रथम श्री चार्ल्स करल बॉनी ने 1889 के ग्रीष्मकाल में की थी।’’
श्री बॉनी उस समय सुविख्यात वकील थे। 1890 ई. से वे ‘इंटरनेशनल लॉ एण्ड ऑर्डर लीग’ के अध्यक्ष पद पर सुशोभित थे एवं कई महत्त्वपूर्ण संवैधानिक एवं आर्थिक सुधार के सृजक थे। उनकी बात आदर से मानी जाती थी और उन्हें जन साधारण सदैव अनुमोदित करता था। एक समिति का निर्माण किया गया, 30 अक्टूबर 1990 को अमेरिकन प्रदर्शनी की एक विश्व सहायक सभा का संगठन हुआ जिसके अध्यक्ष श्री बॉनी थे। विस्तृत एवं जटिल योजनाएँ बनाई गईं, जिसके अन्तर्गत अकथनीय संख्या में पत्रों का आदान-प्रदान पृथ्वी के सभी कोनों से होता रहा। अन्तत: 15 मई एवं 28 अक्टूबर 1893 के मध्य जो सभाएँ हुई। उनकी संख्या बीस थी। इनमें विस्तारपूर्वक विभिन्न मुद्दों पर विचार-विनिमय हुआ जैसे-नारी-जाति की प्रगति, सार्वजनिक प्रेस, औषधी एवं शल्यचिकित्सा, संयम, सुधार, अर्थ-विज्ञान, संगीत, रविवासरीय अवकाश-तथा- ‘चूँकि अलौकिक शक्ति में विश्वास.....सूर्य के सदृश ज्वलन्त हुआ करता है, मनुष्य की बौद्धिक एवं नैतिक उन्नति के पार्श्व में ज्ञान प्रदायिनी शक्ति एवं फलोत्पादन में समर्थ तत्त्व हुआ करता है’’-धर्म। हॉग्टन कहते हैं ‘‘इतनी बहुसंख्याक हुआ करती थीं इनकी सभाएँ एवं इतने विस्तृत होते थे उनके क्रिया-कलाप कि इनके कार्यक्रमों की 160 पृष्ठों वाली मनोरंजक पुस्तक छपी थी।’’
इन सभाओं में से धर्म-सभा ने ही सबसे अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की एवं वही सबसे विस्तृत मात्रा में उद्घोषित हुई। श्री बैरोज ‘‘विश्व धर्म-महासभा’’ में लिखते हैं ‘इसके पूर्व ऐसी जनसभा कभी एकत्रित नहीं हुई थी।...जिसकी प्रतीक्षा इतनी उत्सुकता से विश्व-व्यापी स्तर पर की गई।’ धर्म-जगत् के इतिहास में निश्चय ही यह एक अनुपम एवं अद्भुत घटना थी। यह सत्य है कि भारतीय इतिहास में सर्वत्र विभिन्न धर्मों की सभाएँ हुई हैं, तथा यह भी सत्य है कि 1893 ई. के पूर्व भी समय-समय पर क्रिस्तानी एवं मुसलमानों की धार्मिक सभाएँ हुई थीं। परन्तु यथार्थत: यह कहा जा सकता है कि पूर्वकाल में कभी भी दुनिया के महानतम धर्मों के प्रतिनिधियों को ऐसे किसी एक स्थान पर एकत्रित नहीं किया जा सका था, जहाँ वे अपने-अपने धार्मिक विश्वासों पर निर्भय होकर हजारों मनुष्यों के समझ कह सकें। वह एक अतुलनीय सभा थी, तथा उन असहिष्णुता एवं भौतिकवाद के दिनों में जब सर्वप्रथम इसका प्रस्ताव रखा गया तो बहुतेरों को यह मानवों के लिए असाध्य-सा प्रतीत हुआ। किसी आकस्मिक निरीक्षक को भी वस्तुत: यह भान होता कि अतिमानवी शक्ति से गतिमान कर रही है, एवं यह जानकर किसी को भी आश्चर्य न होगा कि स्वामीजी ने अमेरिका-प्रस्थान के पूर्व ही स्वामी तुरीयानन्द से कहा था, ‘‘धर्म-महासभा का संगठन इसके लिए (अपनी ओर इंगित कर) हो रहा है। मेरा मन मुझसे ऐसा कहता है। सत्य सिद्ध होने में अधिक समय नहीं लगेगा।’’
हाँलाकि धर्म-सभा को संगठित करने वाले जो लोग विश्व के धर्मों को एकत्रित करने में मात्र यन्त्र-स्वरूप थे, उनके मस्तिष्क में कभी भी यह बात नहीं उभरी। चाहे ईश्वरीय विधान कुछ भी क्यों न हो, परन्तु इस संगठन के पीछे जो मानवीय उद्देश्य थे वे मिश्रित थे। स्वामीजी के बाद के अपने पत्र में लिखा है: ‘‘ईसाई धर्म का अन्य सभी धार्मिक विश्वासों के ऊपर वर्चस्व साबित करने हेतु ही विश्व धर्म-महासभा का संगठन किया गया था।.....’’ तथा पुन:, एक साक्षात्कार के दौरान वे बोले थे, ‘‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह विश्व-धर्म-महासभा का संगठन जगत के समक्ष अक्रिस्तियों का मजाक उड़ाने हेतु हुआ है।’’